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"कर्नल सेंड्रास": वीरता और समर्पण की कहानी
प्रस्तावना:
"कर्नल सेंड्रास" का नाम भारतीय सेना के वीर योद्धा में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उन्होंने अपने वीरता और समर्पण से दुश्मनों को पराजित करने का संकल्प लिया और देश की सेवा करते हुए शहीद होने का गौरव प्राप्त किया।
नामकरण और शौर्य:
"कर्नल सेंड्रास" का जन्म 25 दिसंबर 1920 को हुआ था। वे अपने असली नाम मांडली परमेश्वर सेंद्रास के रूप में जाने जाते थे, लेकिन बचपन से ही वे "सेंड्रास" के नाम से जाने जाते थे। उनका जन्मस्थल तामिलनाडु के धर्मपुरी गाँव था। वे छोटे से ही हीरो के रूप में अपनी पहचान बनाते गए और अपनी कठिनाईयों का सामना करते हुए भी समर्पण और वीरता में कमी नहीं की।
युद्ध सेवा में प्रवृत्ति:
सेंड्रास ने अपने प्रारंभिक शिक्षा के साथ ही युद्ध सेवा में प्रवृत्ति दिखाई। उन्होंने 1942 में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में शामिल होकर दूसरे विश्वयुद्ध के समय सेवानिवृत्ति ज्वाइन की। वे 1943 में बारमा कैंप में ताकत बढ़ाने के लिए जाते हैं, जहां उन्होंने अपने शौर्य का प्रमाण दिया।
कोरिया युद्ध:
कोरिया युद्ध के दौरान, सेंड्रास भारतीय जवानों के साथ मिलकर जुलाई 1950 से जुलाई 1953 तक युद्ध किया। उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम था जब उन्होंने अपने पार्टी के साथ एक पाकिस्तानी पोस्ट की ओर अग्रसर होकर उसे संघर्षमय रूप से पराजित किया। उन्होंने अपने वीरता और दृढता का प्रमाण देते हुए वह पोस्ट आज भारतीय सेना की एक महत्वपूर्ण स्मारक के रूप में जानी जाती है।
वीरता की पहचान:
कर्नल सेंड्रास ने कोरिया युद्ध में दिखाए गए शौर्य के लिए वीरता सम्मान से नवाजा गया। उन्हें 1953 में वीर चक्र से सम्मानित किया गया, जिससे उनका नाम देशभक्ति और वीरता के साथ जुड़ गया।
सेना सेवा के बाद:
सेना सेवा के बाद, सेंड्रास ने अपना जीवन समाज सेवा में दिया। उन्होंने सैनिकों की सेवा के लिए "सातवाँ
वेतन आयोग" के सदस्य के रूप में भाग लिया और उन्होंने यहाँ भी अपने नेतृत्व कौशल का प्रमाण दिया।
निष्कर्ष:
कर्नल सेंड्रास की कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है कि वीरता, समर्पण, और सेवा का परिणाम सफलता होता है। उन्होंने अपने देश की सेवा के लिए जीवन की आदर्श प्रेरणा प्रस्तुत की और उनका योगदान आज भी हमारे देश की शौर्य और वीरता की मिसाल के रूप में उच्च मान्यता प्राप्त करता है।
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